Wednesday, September 24, 2008

मेरा जीवन

पेट के पीछे भागा जा रहा था, भागा जा रहा था। थककर थोडासा रुक गया, थोडा सास लेने के लिए। तब पता चला की पेट तो बहुत पीछे रह गया है, और में ही भागा जा रहा हूँ, जोर से भागा जा रहा हूँ। कैसी भाग है जो रुकने नही देती? कैसी भाग है ये जिसका कोई अंत नही?
लगता है जैसे भाग ही जीवन है, रुक गया सो मर गया।
लगता है जैसे भाग जीवन ही है, जोर से बहा नही सो सूख गया।

ये भाग नही तो कैसा हो जीवन? जीवन ऐसा हो जो भागता तो नही पर गतिशील हो। जीवन ऐसा हो स्थिर तो हो पर मृत पत्थर ना हो। जो गतिसे डरता नही और गतिके अधीन नही। जो बहने से बह नही जाता और रुकने से सूख नही जाता। जीवन ऐसा हो जो अपने आप में जीवन है, जीवनदायी है। मंझिल अंदरसे उभरती है, फूलती है, जो उसे गाती देती है और स्थिरता भी, एकसाथ। मंझिल और रास्ता एक दूसरे में समाये हुए है। रुकना और चलना एक दूसरे के अंग है

किसी के पीछे भागने की वासना नही, किसी के आगे भागने की ईर्ष्या नही। गती है पर वो शान्ति का रूप है। शांती है गति में रहती है और गतिसेही फैलती है। पूरे तनमें, पूरे मनमें। मनसे फैलती है पूरे जीवनमें

हे मेरे आत्मा मुझे ऐसा जीवन दे।

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